सूचना मांगने वालों को प्रताड़ित करने की सबसे ज़्यादा शिक़ायतें बिहार से ही आती रही हैं। अब बिहार सरकार ने आरटीआई फीस नियमावली में संशोधन करके सूचना क़ानून की हत्या कर डाली है। हाल ही में झारखंड सरकार की ऐसी ही एक हास्यास्पद कोशिश को सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं ने धूल चटा दी है। बिहार में भी यह कोशिश ज़्यादा दिन नहीं टिकेगी।
ध्यान रहे कि वर्ष 2005 में संसद द्वारा सूचना क़ानून पारित किये जाने से पहले ही नौ राज्य सरकारों ने सूचना क़ानून लागू कर दिये थे। तमिलनाडु एवं गोवा में 1997, राजस्थान एवं कर्नाटक में 2000, दिल्ली में 2001 में यह क़ानून बना। असम, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र ने 2002 तथा जम्मू-कश्मीर ने 2004 में सूचना क़ानून बनाया। इनमें से एक भी राज्य एनडीए के किसी घटक या भाजपा-जदयू शासित नहीं था। इन नौ राज्यों में और फिर केंद्रीय स्तर पर भी सूचना क़ानून लाने का श्रेय कांग्रेस और यूपीए से जुड़े दलों को जाता है। अब कांग्रेस को सूचना क़ानून बनाने का अफ़सोस है क्योंकि इस क़ानून से पहली बार लोकतंत्र के बेचारे नागरिक को एक हैसियत मिल गयी है। वह शासन-प्रशासन की असलियत उजागर करने लगा है। इसीलिए केंद्र सरकार ने सूचना क़ानून में संशोधन करके इसे कमज़ोर करने की कोशिशें शुरू कर दी है।
दूसरी ओर, बिहार सरकार ने एक कदम आगे बढ़ कर फीस नियमों में अवैधानिक संशोधन किये हैं। इससे पता चलता है कि नागरिकों को सूचना के अधिकार से वंचित करने में आज यूपीए और एनडीए, दोनों में सहमति बन चुकी है।
17 नवंबर 2009 को पटना में बिहार सरकार के मंत्रिपरिषद की बैठक हुई। बैठक में सूचना का अधिकार संबंधी फीस नियमावली के संशोधन को स्वीकृति दी गयी। इसके अनुसार अब आवेदक को एक आवेदन पर एक ही सूचना उपलब्ध करायी जा सकेगी। आवेदक को सूचना पाने के लिए अपना टिकट लगा एवं पता लिखा लिफाफा भी देना होगा। इसके अलावा बीपीएल सूची में शामिल लोगों को अब दस पेज तक की ही सूचना नि:शुल्क दी जाएगी।
यह संशोधन पूर्णतया अवैध है। यह सूचना मांगने वाले नागरिकों को परेशान करने की बुरी नीयत से किया गया है। यह सूचना क़ानून के प्रावधानों और भावना के ख़िलाफ़ है। बिहार और देश की जनता इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगी। सुशासन और विकास पुरुष की श्रेणी में नाम लिखाने की कोशिश में जुटे नीतीश कुमार को पारदर्शिता विरोधी इस संशोधन के कारण विदूषकों की सूची में अपना उल्लेख देखने की नौबत आ सकती है।
सूचना क़ानून के तहत फीस एवं अपील संबंधी नियमावली बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया है। लेकिन यह मूल क़ानून के अनुरूप ही होनी चाहिए, न कि इससे प्रतिकूल। कोई भी नियम उसके मूल क़ानून से ऊपर या उसके प्रतिगामी नहीं हो सकता। फिर, जब क़ानून और नियम में विरोधाभास हो, तो क़ानून को ही सर्वोपरि माना जाएगा।
सूचना क़ानून की धारा 7(5) कहती है – ऐसे व्यक्तियों से, जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं, कोई फीस प्रभारित नहीं की जाएगी।
मतलब साफ है। क़ानून के अनुसार बीपीएल श्रेणी के नागरिकों से सूचना के एवज़ में कोई फीस नहीं ली जाएगी। वह सूचना अधिकतम कितने पृष्ठों तक होगी, क़ानून ने इसकी कोई सीमा तय नहीं की है। लिहाजा, बिहार सरकार द्वारा बीपीएल श्रेणी के लोगों को दस पेज तक की ही सूचना निःशुल्क देने संबंधी नियम बनाया जाना अवैध है। यह सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों और भावनाओं के प्रतिकूल है। अदालत में इसे चुनौती देकर न्याय की अपेक्षा की जानी चाहिए।
इसी तरह, एक आवेदन में सिर्फ एक सूचना मांगने संबंधी नियम भी अवैध एवं हास्यास्पद है। सूचना क़ानून के अनुसार सूचना के लिए नागरिक एक लिखित आवेदन देगा। इसमें सूचना की परिभाषा काफी व्यापक एवं विस्तृत है। इसमें आवेदन को मात्र किसी एक सूचना या किसी एक बिंदु तक सीमित करने का कोई प्रावधान नहीं है। लिहाज़ा, कोई भी सरकार अपनी मरजी से सूचना की परिभाषा को संकुचित नहीं कर सकती। यह संशोधन बिहार को सुशासन नहीं बल्कि कुशासन की ओर ले जाएगा। नौकरशाह इस संशोधन की मनमानी व्याख्या करके नागरिकों को अपमानित और प्रताड़ित करेंगे।
सूचना के एवज़ में फीस लेने का प्रावधान है। लेकिन क़ानून में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि यह फीस युक्तियुक्त या तर्कसंगत होनी चाहिए। अनुचित या अतार्किक फीस वसूलने की कोशिश अवैध मानी जाएगी।
क़ानून की धारा 27 में राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति दी गयी है। इसमें फीस संबंधी नियम सिर्फ सूचना के लिए आवेदन करने और सूचना के प्रति पृष्ठों के संबंध में लेने की बात कही गयी है। सूचना नहीं मिलने या अधूरी मिलने पर अगर आवेदक को अपील करनी हो, तो इसके लिए कोई फीस नहीं ली जा सकती। प्रथम अपील के संबंध में राज्य सरकार को सिर्फ प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने की शक्ति है। इसके लिए वह कोई फीस निर्धारित नहीं कर सकती।
लेकिन बिहार सरकार ने प्रथम अपील के लिए पचास रुपये की फीस निर्धारित करके सूचना क़ानून का मखौल उड़ाया है। जरा सोचिए, किसी नागरिक को अपील क्यों करनी पड़ रही है? जनसूचना अधिकारी ने उसे वांछित सूचना नहीं दी, इसलिए नागरिक को अपील करनी पड़ रही है। अगर उसे सूचना मिल गयी होती तो अपील नहीं करनी पड़ती। इस तरह, जनसूचना अधिकारी द्वारा क़ानून का पालन नहीं किये जाने के कारण नागरिक को प्रथम अपील करनी पड़ी। ऐसे में उस नागरिक को संरक्षण और सहयोग देने के बजाय उससे पचास रुपये वसूलना निश्चय ही उसे हताश करने की साजिश है।
डॉ जगन्नाथ और लालू प्रसाद जैसे प्रतापी नेता पशुपालन घोटाले की चक्की में पिस गये। मधु कोड़ा जैसे सौभाग्यशाली मुख्यमंत्री मिनटों में उठाईगीर साबित हो गये। सुशासन लाना हंसी-ठठ्ठा नहीं है नीतीश जी। देखते-ही-देखते दिन लद जाएंगे। सुशासन का ठेका अकेले मत लीजिए। नहीं सकिएगा। भ्रष्टाचार रोकना हो तो बिहार के नागरिकों की मदद लीजिए। सुशासन चाहिए तो आम नागरिक की हैसियत को मत ललकारिए। उसे भी शासन और प्रशासन से जानने और पूछने दीजिए। उसे अवैध नियमों के जाल में मत उलझाइए। उन राज्यों का अनुसरण कीजिए, जो सूचना क़ानून को सरल और जनमुखी बना रहे हैं। महाराष्ट्र से ही कुछ सीख लीजिए। पुणे नगरपालिका में हर सोमवार को कोई भी नागरिक जाकर कोई भी फाइल देख सकता है। उसकी फोटो कॉपी ले सकता है। महाराष्ट्र ज़्यादा दूर लगे तो आप पड़ोसी राज्य झारखंड के एक युवा आइएएस का उदाहरण देख लीजिए। रांची के उपायुक्त केके सोन अपने विभागों की तमाम सूचनाएं सहर्ष देने को तत्पर रहते हैं। उन्हें तो कोई डर नहीं है सूचना क़ानून से।
अगर आपको अकर्मण्यता और लूटखसोट के उजागर होने का भय नहीं, तो सूचना क़ानून से डरने की ज़रूरत नहीं। नागरिक तो अपने सवालों से आपके सुशासन के रथ को आगे बढ़ाने में ही मदद कर रहे होंगे। अगर आपके पास छुपाने को कुछ नहीं, तो सूचना क़ानून से भय कैसा? यह क़ानून तो पूरे देश में शासन और प्रशासन को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की दिशा में ऐतिहासिक और शानदार सफलताएं हासिल कर रहा है। फुरसत हो तो इन सफलताओं के किस्से पढ़-सुन लें। क़ानून की धारा चार के सभी प्रावधानों का सही अनुपालन हो तो आपकी समस्याएं यूं ही आधी हो जाएंगी। आप जिस सुशासन की बात करते हैं, वह सूचना क़ानून से ही आएगा। वह सुशासन हर नागरिक की सक्रियता से ही आ सकता है। अगर आपके राज्य में सूचना क़ानून की हत्या हुई, तो कुशासन लाकर सुशासन की बात करने वाले विदूषक कहलाने में देर नहीं लगेगी।
Original post by Sri Vishnu Rajgadiya on www.mohallalive.com
Rajnish ji
जवाब देंहटाएंI had read this comment in mohallalive.com whic has been written by Sri Vishnu Rajgadia, a senior journalist and renound RTI personality. But you have not mentioned his name and it seems it has been written by you. You have also not informed the readers that it had published in mohallalive.com.
Your reader also have right to get information that the comment has written by whom and where it was published. I hope you will correcet your mistake.
Sanjeev Kumar
Sanjeev Ji, you are true and i have already added the link of original post with title and have posted the issue, when Sri Vishnu Rajgadiya insisted me to do so via chat. If you will click the title, original post will be displayed. Now i am editing the post to publish the same. Thanks for your kind response......
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