शनिवार, 25 सितंबर 2010

तंत्र व्यवस्थित ढ़ंग से एवं ईमानदारी से काम करे तो विकास की गति कई गुणा बढ़ जाएगी

सोशल साइट्स पर कदम रखने के बाद मुझे लगा कि सामाजिक समस्याओं के प्रति बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग काफी चिन्तित रहते हैं। पर, कुछ लोग पूर्णतावादी विचार रखते हैं, कुछ व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव चाहते हैं तो कुछ नागरिकों के हाथ में ऐसी ताकत चाहते हैं, जो वास्तव में उसे मालिक होने का अहसास कराए। कुछ हमारे प्रबुद्ध साथी कहते हैं कि जिला पदाधिकारी का नाम जिला सेवक कर दिया जाना चाहिए। सबके अपने-अपने राय हैं और शायद सब अपने हिसाब से सही भी हों।

पर, मेरी समझ है कि तंत्र व्यवस्थित ढ़ंग से एवं ईमानदारी से काम करे तो विकास की गति कई गुणा बढ़ जाएगी साथ ही सामाजिक समस्याओं खासकर अति गरीबी को तो दूर किया ही जा सकता है। इसे दूसरे शब्दों में यूँ कहें कि किसी को परमावश्यक आवश्यकताओं की कमी नहीं खलेगी। भोजन के लाले नहीं पड़ेंगे, रहने को घर मिल जाएगा और पहनने को कपड़े। आज आधी आबादी की मूलभूत आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पाती, मैं इसके कारणों के विशद विवेचना में नहीं जाना चाहता पर प्रशासन में भ्रष्टाचार कैंसर की तरह फैल गया है जो मुख्य वजह है।बहुत सारी शानदार योजनायें हमारी सरकार के द्वारा चलायी जा रही है, इन पर पानी के तरह पैसे बहाए जा रहे हैं, पर परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात रहते हैं।

सबसे पहले तो शुरुआती स्तर से ही पढ़ाई की व्यवस्था बिल्कुल दुरुस्त होने चाहिए। लोगों को इस लायक जरुर बनाया जाए कि वे कम से कम अपनी समस्या तथा उसके कारणों से अवगत हो सकें, साथ ही उस समस्या के निराकरण हेतु उपलब्ध उपचार को अपनाने हेतु ललक रख सकें। यहाँ तो स्थिति यह है कि आप अहले सुबह या शाम में सड़क पर निकल जाएँ तो सड़क के दोनों किनारे शौच करनेवालों की लंबी कतारें मिलेंगी।

पढ़ा-लिखा आदमी हमेशे ही अपने जीवन-स्तर को बेहतर बनाने की सोचता है, अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहता है और उपलब्ध विकल्पों को अपनाने में हिचकता नहीं। अभी तो मैं देखता हूँ एक-एक आदमी के बारह-बारह बच्चे हैं। एक अपने खाने-पीने, रहने की उचित व्यवस्था नहीं और बारह बच्चों को पैदा कर दिया, भाई समस्या तो पहले से ही थी, अब तो समस्या विस्फोट में बदल रही है। परिवार-नियोजन के साधनों का काफी प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है, पर जो अत्यंत गरीबी बदहाली में जी रहे हैं, उन्हें आज भी नहीं पता परिवार को कैसे सीमित रखा जाए। कोई बताता भी है तो वे अपनाने को तैयार नहीं होते, क्योंकि उनका मानसिक स्तर इस लायक नहीं हो पाया है।

अब इनके हित के लिए जो योजनाएँ हैं, उनका क्या हश्र होता है ये तो सभी को मालूम है। इन योजनाओं की ऐसी की तैसी इसलिए होती है, क्योंकि वे जागरुक नहीं हैं, पढ़े-लिखे नहीं हैं। इनमें जानकारी के अभाव के चलते व्यवस्था का विरोध करने के साहस का अभाव है। और मैं एक बात बता दूँ, कोई भी समाजसेवी उनकी फिक्र उस हद तक नहीं कर पाएगा, जितना वे स्वयं करेंगे। गरीब, दलित, पिछड़ों (कृपया जाति के आधार पर न देखें) के उद्धार के लिए उन्हें स्वयं शिक्षित करना होगा, जागरुक बनाना होगा। एक बार उन्हें गुणवत्तायुक्त शिक्षा मुहैया करा दिया जाए तो फिर वे स्वयं सक्षम हो जायेंगे अपनी सारी समस्याओं को सुलझाने में। फिर किसी मुखिया जी या बीडीओ साहब में हिम्मत नहीं होगी कि वे प्रतीक्षा सूची के अनुसार इन्दिरा आवास का आवंटन न कर मनमाना करें और प्रति इन्दिरा आवास पाँच हजार रुपए वसूलें।

हर पंचायत में अमूमन दस से बीस लाख रुपए प्रत्येक वर्ष मनरेगा में खर्च हो रहे हैं, लेकिन वास्तव में धरातल पर बीस प्रतिशत राशि का भी व्यय नहीं हो पा रहा। चर्चा होती है कि बिहार में निवेश नहीं हुआ, फैक्ट्री नहीं लगी, मजदूरों का पलायन अन्य प्रदेशों में हो रहा है। और तो और महाराष्ट्र, गुजरात, आसाम सब जगह बिहारी मजदूर पीटे जा रहे हैं। निवेश नहीं हुआ तो नहीं हुआ, मनरेगा को तो ईमानदारी से कार्यान्वित करा दीजिए। जो काम बिहार सरकार के हाथ में है उसका कार्यान्वयन तो सही तरीके से हो जाए। मनरेगा को ईमानदारी से धरातल पर उतार दिया जाए तो बड़े स्तर पर मजदूरों को अपने घर में काम मिल जाएगा साथ ही आधारभूत संरचनाओं का भी विकास होगा और मजदूरों के पलायन को रोकना संभव हो सकेगा।

हमारे यहाँ बहुत सारी महत्वाकाँक्षी सरकारी योजनाएँ हैं पर सब के सब भ्रष्टाचार के दलदल में फँसी हुई हैं,
उदाहरणार्थ-----इन्दिरा आवास योजना, राजीव गाँधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना, मनरेगा, बीआरजीएफ, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सर्व शिक्षा अभियान इत्यादि।

मैंने इन सारी योजनाओं को बेहद करीब से देखा है, इनको लागू कराने के लिए प्रयास किया है और अपने प्रयास में सफल हुआ हूँ। पर, जैसा कि मैंने पहले कहा है मैं उनकी समस्याओं के समाधान हेतु अपनी ऊर्जा का कुछ अंश तो लगा सकता हूँ, अपना सर्वस्व न्योछावर नहीं कर सकता। सभी लोगों का सामाजिक जीवन के साथ-साथ व्यक्तिगत जीवन भी होता है और स्वाभाविक रुप से व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ भी। इसका एकमात्र उपाय है जिनकी समस्या हो उन्हें इस योग्य बना देना ताकि समस्या का समाधान निकालना उनकी व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा बन जाए।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सरकार तो सबसे बड़ी संगठन होती है फिर यह ड्रामा कैसा?

सरकार तो सबसे बड़ी संगठन होती है फिर यह ड्रामा कैसा?
क्या सरकार से ज्यादा संसाधन नक्सलियों के पास हैं?
नक्सलियों के प्रति लोगों में बहुत गुस्सा है, अधिसंख्य लोगों की ख्वाहिश है कि इनके प्रति कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए। पर, सरकारी तंत्र में दृढ़ इच्छा-शक्ति का बिल्कुल अभाव दिखता है, बस मीडिया में बयानबाजी की जा रही है कि आर-पार की लड़ाई की जाएगी।
अभी-अभी साधना न्यूज पर एक सज्जन जो कि घटनास्थल से होकर आए थे का कहना था कि यहाँ आपलोग कह रहे हैं कि कॉम्बिंग ऑपरेशन चल रहा है पर वास्तव में घटनास्थल पर ऐसा कुछ नहीं है- पुलिस एवं सीआरपीएफ के लोग कजरा पहाड़ी के नीचे से घूम कर आ रहे हैं और कह रहे हैं कि कॉम्बिंग ऑपरेशन चला रहे हैं। वे तो यहाँ तक कह रहे थे कि क्या चार वीवीआईपी (मुख्यमंत्री, सरकार के मंत्री आदि) को नक्सलियों द्वारा अगवा कर लिया जाता तो भी इसी तरह की टाल-मटोल की नीति अपनायी जाती, शायद नहीं और तब कार्रवाई निर्णायक होती।
नेतृत्व, समन्वय, संसाधन, संचार, साहस सबका साफ अभाव दिखता है ऐसे मौकों पर।
यहाँ से आतंकवादियों की खेप को कंधार पहुँचाने का उदाहरण मिलता है|
ताज-ओबेरॉय पर हमला होता है तो हर अत्याधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल होता है और सैनिक-अर्धसैनिक बलों ने अपने प्राण की आहुति देकर भी लोगों के जान बचाए पर जब स्वयं हमारे सुरछाकर्मियों की बात आती है तो सरकार केवल आर-पार या निर्णायक लड़ाई का स्वांग रचती है।
आज जब विज़ान इतना विकसित हो गया है,हर तरह के संसाधन विकसित हो गए हैं,
सरकार के पास गैरजरुरी कार्यों के लिए भी पानी की तरह बहाने के लिए पैसे हैं तो फिर इन मध्ययुगीन टाइप आक्रांताओं से निपटने में सरकार को इतनी परेशानी क्यों हो रही है?
कोई नक्सली मोबाइल से तीन-तीन दिन तक मीडिया में दिन-दिन भर बात करता है, सीधे मुख्यमंत्री से बात करने की शर्त रखने का हिमाकत करता है और कोई उसे ट्रेस तक नहीं कर सका या ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सका।
वे खुलेआम सरकार को धमकी देते हैं, तो जनता अपने को सुरछित कैसे महसूस करे?
प्रदेश की पूरी जनता सरकार की मजबूरी-लाचारगी को देख-समझ रही है, क्या इससे लोगों का भरोसा नहीं उठेगा सिस्टम से?
क्या लुकस टेटे की हत्या के बाद भी बातचीत का कोई औचित्य बचा है?
अभी भी मौका है, जनता की संवेदना सरकार के साथ है, सरकार बहुत शक्तिशाली होती है, उसमें प्रदेश की पूरी जनता की शक्ति निहित है। नेतृत्व इस शक्ति का अपमान न कराए,नक्सलियों को उनकी औकात बताने के लिए हर हथकंडे अपनाए जाएँ। प्रदेश की जनता इस बार निर्णायक कार्रवाई चाहती है|
जो सही समय पर सही निर्णय लेगा वही हमारा हीरो (नेता) होगा।