शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

थोड़ा वक्त हमें दो



वाकई यह युद्ध है,
और इस युद्ध को जितना है ।
अपने ही दम पे,
अपने ही कर्म से ।
अपनों को हमने खोया है,
अपनों के लिए रोया है ।
उनको भी रुलायेंगे,
उनको भी जलायेंगे ।
थोड़ा वक्त हमें दो,
फिर मेरा कहर देखो ।
कभी ना तुमको छोड़ेंगे,
तेरी आँखें भी ना फोड़ेंगे ।
पर, थोड़ी सी तैयारी करनी है,
अपने लोगों में हिम्मत भरनी है ।
उन्हें असली बात बताना है,
अभी क्या करना है, समझाना है ।
एक बार यह बात समझ में आ गयी,
तो फिर तेरी औकात ही क्या है ।
तुम्हें जिन्दा सटवाऊँगा ताज के दरवाजे पर,
जहाँ सैलानी देखने आयेंगे विश्व का आठवाँ अचरज ।
तुम भी उन्हें देखोगे, पर देख नहीं पाओगे,
तुम भी उन्हें सुनोगे, पर कह नहीं पाओगे ।
पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, शहीदों को शान्ति मिलेगी,
बच्चों का मनोरंजन होगा, दुनिया इसे क्रान्ति कहेगी ।
और तुम टुकुर-टुकुर देखते रहोगे, इसिलिए तो तुम्हारी आँखें छोड़ी थी ।
खाना-पीना तुम्हें अच्छा मिलेगा, दूध मिलेगी थोड़ी सी ।
जितना दिन तुम जिन्दा रहोगे, यहाँ डॉलर की बरसात रहेगी,
तुम्हारी आवभगत देखकर, बाकी की नींद उड़ी रहेगी ।
यह कोई कविता नहीं, बल्कि योजना है,
तुम्हें अपने किए का तो भोगना है ।.

2 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ा ही दहकता हुआ और रचनात्मक कविता है बंधू. आपका प्रयास सराहनीय है. आपने सही कहा है, कि किसी को दोषी ठहराने से काम नहीं चलेगा. आपने जो छोटा कदम उठाया है, और जिस प्रकार से सूचना क्रान्ति का सही उपयोग किया है, वही आज की सबसे बड़ी जरूरत है.

    पर जो भी कहिये, ये कविता जोरदार बन पडी है...

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  2. vismay vimugdh hun....rachna dahakte angaare se kam nahin,har pankti andar me ek jazbaa jagaati hai.........ise kavita nahi kahungi,yah sarfaroshi ki tamanna hai

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