रविवार, 14 दिसंबर 2008

मेरा बचपन




मैं बैठता था गाँव की आहर के किनारे,
आती थी बगुलों की झुण्डें हजारों ।
चने के खेतों में फले हरे किशमिश के नाम,
कटता था मेरे बचपन में वो तपिश की शाम ।
देखता था पक्षियों को लौटते अपने घर को,
बैठा पानी में पैर लटकाये, निडर हो ।
बिल्कुल अनजाना सा निट्ठला सा और थोड़ी लापरवाही से,
मुझे क्या पता था घर में चिंतित होंगे सारे ।
पर, घर जाने से पहले एक भय घर कर जाता,
आज पिटाई होगी मेरी कल से भी ज्यादा ।
चुपके से जाकर, झट से पढ़ने बैठ जाता,
पर चाचा को वहाँ पहले से तैयार पाता ।
कान से शुरु होकर बात पीठ तक पहुँचती,
और, फिर न जाने की हिदायत, के बाद ही रुकती ।
अगले दिन शाम मैं फिर भूलकर सारी बातें,
चला जाता पनघट पर अपनी शामें बिताने ।
वक्त गुजरता गया, मैं सुधरता गया ?
पर इस सुधार में वो आनन्द कहाँ, जो बगुलों को देखने,
और फिर घर आकर पिटने में था ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन आँखों के आगे घूम गया.....यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आपकी कलम को माँ सरस्वती का आशीर्वाद है.......
    वो बगुलों वाली मासूमियत ही तो चाहिए,
    वाह !

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  2. "waqt gujarta gaya mai sudharta gaya"...is sudhar ne he to mujhe bigada hai,
    kal tak galiyo me ghoomne wala shaks aaj band kamre me bhi awara hai.

    rgds
    Aparna

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