बुधवार, 8 फ़रवरी 2012
जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय हैं कबीर.
आज अचानक 'अहा ! जिंदगी' मासिक पत्रिका के फरवरी अंक में कबीर के बारे में पढकर इनके बारे में पढ़ी बहुत सारी पुरानी यादें ताजा हो गयी. हिन्दी साहित्य में मैं कबीर से बचपन से ही प्रभावित रहा हूँ, उनकी रचनाएं तत्कालीन समाज की जड़ता पर तो प्रहार कर ही रही थी, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. पंद्रहवीं सदी में कबीर द्वारा कही गयी बातों को दुहराने की कुव्वत आज इक्कीसवीं सदी में भी बहुत कम लोगों में है. सल्तनत काल में उन्होंने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों के पाखण्ड की जम कर धज्जियां उड़ाई, ये कोई सामान्य घटना नहीं थी. ज्ञान की राह में कभी व्यंग्य की परवाह नहीं की. कहा भी है-
"हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥"
कबीर ने कभी कलम और कागज़ को हाथ नहीं लगाया और न ही अपनी कही बातों को लिपिबद्ध कराया था, यही कारण है कि उनके दोहे और साखियाँ जिनके भावार्थ तो समान होते हैं, पर भाषाई असमानता प्रदर्शित करते हैं. वो इसलिए भी कि जिन्होंने भी उसे लिपिबद्ध किया, उसमें अपनी भाषा की छाप छोड़ दी. मुस्लिम परिवार में पालन-पोषण होने के बावजूद उन्होंने स्वामी रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण किया और वैष्णव धर्मावलंबी की तरह पूजा-पाठ और तिलक धारण किया करते.
एक ओर उन्होंने जमाखोरी पर यूँ प्रहार किया-
"साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥"
तो दूसरी ओर सब्र रखने की भी सलाह दी-
"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥"
मधुर वाणी की महत्ता (जिसका मुझमें घोर आभाव है) उनके इस दोहे से स्पष्ट होती है-
"कागा काको धन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥"
उस जमाने में मूर्ती-पूजा का यूँ मजाक उड़ाना किसी विरले के बस की ही बात थी-
"पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥"
समाज में कोई सुधार न होता देख वे हतोत्साहित भी होते थे, और उन्हें लगता था बाकि लोग तो बेफिक्र हैं, एक वे ही परेशान हो रहे हैं-
"सुखिया सब संसार जो खावै और सोवे,
दुखिया दास कबीर जो जागे और रोवै..."
ऐसा माना जाता था कि काशी में प्राण त्यागने वाले स्वर्गवासी और मगहर में मरनेवाले नरकवासी होते थे, जिसे कबीर ने सिरे से नकारा और जान-बूझकर अपना अंतिम समय मगहर में व्यतीत किया जहाँ उनका देहावसान हुआ-
"क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥"
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