बुधवार, 27 जनवरी 2010

नरेगा धन पर गिद्ध दृष्टि


दुनिया जब मंदी के दौर से गुजर रही थी, उस समय भारत में नरेगा का जन्म हुआ। मजदूरों के संघर्ष ने रंग दिखाया और संप्रग सरकार ने ऎतिहासिक व क्रांतिकारी कानून बनाया। गरीब के लिए जीवनदान है नरेगा। इसके बनने के साथ-साथ इसे लागू करने के प्रावधान भी बहुत अच्छे बने। यह योजना पहले दौर में बहुत अच्छी चली, लेकिन लगातार हो रहे चुनावों ने हालात बिगाड़ दिए हैं। अब पंचायत चुनाव का दौर चल रहा है। इसमें सबकी नजर नरेगा के धन पर लगी हुई है। खर्चा करो, चुनाव जीतो और धन कमाओ। नरेगा से जहां गरीबों के लिए दो वक्त की रोटी मिलने लगी है, वहीं दलाल और भ्रष्टाचार करने वालों की भी पौ-बारह हो गई है।

आज कोई भी सरकार रोजगार गारंटी बंद नहीं कर सकती। सभी मजदूर चाहते हैं कि नरेगा ठीक से चले, उन्हें 100 रूपए पूरे मिलें तथा 100 दिनों की गारंटी में और दिनों का इजाफा हो। महंगाई के समानांतर मजदूरी भी बढ़े। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में नरेगा श्रमिकों में 90 प्रतिशत महिलाएं काम पर जाती हैं। आज समय से भुगतान नहीं हो रहा है, पूरी मजदूरी नहीं मिल पा रही है, तब भी लोग डटे हैं इस योजना को बचाने के लिए। दुर्भाग्य है कि हमारा चुनाव तंत्र पैसों से इतना जुड़ गया कि धन-बल पर ही चुनाव लड़ा जा रहा है और यह धन-बल का तरीका लोकतंत्र के लिए खतरा बनता जा रहा है।

वैसे तो हर चुनाव में पैसे खर्च किए जाते हैं, लेकिन इस बार के चुनाव में बहुत खर्च किया जा रहा है। इस खर्चे के पीछे नरेगा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जब यह योजना नहीं थी, तब पंचायतों में इतना पैसा नहीं था। अब पंचायतों में दस गुना पैसा आ रहा है, लगभग हर पंचायत में प्रतिवर्ष एक से दो करोड़ तक आ रहा है। इसलिए जो लोग सरपंच बनने के लिए चुनाव में उतर रहे हैं, उसकी नजर 5 साल में आने वाले 10 करोड़ रूपयों पर है। यदि उसने दस प्रतिशत पर भी हाथ साफ कर लिया, तो 5 साल में एक करोड़ रूपए की कमाई होगी। जो सरपंच नरेगा के दौरान रह चुका है, वह तो इस चुनाव के दौर में अनाप-शनाप पैसे खर्च कर रहा है। कुल मिलाकर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है। गांवों में जश्न मना रहे हैं, सरकार की मेहरबानी से हर गांव में अंग्रेजी शराब की दुकानें खुल चुकी हैं। गांव से दूर झुंड के झुंड बैठे नजर आते हैं। वहां पूरी रणनीति बनती है, जिसमें वोटों को खरीदा व बेचा जाता है, खरीदने वाला तो उम्मीदवार होता है और वोट बेचने वाले गांव के कुछ बिकाऊ दलाल होते हैं, इनकी इतनी चलती है कि वे अपना वोट ही नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले के, पूरी गुवाड़ी के वोटों को बेच देते हैं। उम्मीदवार पैसों से वोटों का सौदा करता है, मोलभाव हजारों रूपए से चालू होता है, लाखों में टेंडर छूटता है। प्रचार के दौरान दारू , मीट, चाय, समोसा-कचौरी आदि लगातार चलते हैं।

आज नरेगा कार्य क्षेत्र में महिलाएं ही ज्यादा दिखती हैं, लगभग 90 प्रतिशत, पुरूष तो बहुत कम होते हैं। पंचायतराज चुनाव में सरकार ने 50 प्रतिशत आरक्षण कर दिया है, लेकिन निर्णय करने की स्थिति आज भी महिलाओं के हाथ में नहीं है, कुछ अपवाद छोड़ दें तो ज्यादातर महिलाएं तो चुनाव में किसको वोट देना है, यह भी तय नहीं कर पाती हैं। यह काम भी पुरूष ही करते हैं। इस पूरी सौदेबाजी में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होती। उनसे वोट खरीदने की बात उम्मीदवार नहीं करते, उनका सामना भी नहीं करना चाहते, क्योंकि उनकी मांग बिलकुल साफ-सुथरी है। उनका नरेगा का भुगतान महीनों से बाकी है, पूरे काम करने पर भी पूरा भुगतान नहीं मिलता है, पंचायत में आवेदन भरवाने के लिए खूब चक्कर लगाने पड़ते हैं, तब भी आवेदन नहीं भरते हैं और जॉब कार्ड बनवाने के पैसे मांगते हैं। महिलाएं बोलती हैं, मजदूरी कम है और बढ़ाओ क्योंकि महंगाई बढ़ रही है। हैंडपंप खराब है, राशन की दुकान में गेहूं की आपूर्ति नहीं हो रही है।

अगर आपूर्ति हो भी रही है, तो वितरण नहीं हो रहा है। महिलाएं समस्याएं गिनाने लगती हैं, जिनका संतोषप्रद जवाब उम्मीदवारों के पास नहीं होता है। ऎसे में उम्मीदवार महिलाओं के पुरूष रिश्तेदारों से ही बात कर रहे हैं, वो भी गांव से दूर ले जाकर। महिलाएं तो यहां तक कह रही हैं कि इस चुनाव ने दारू नहीं पीने वालों को भी पीना सीखा दिया गया है। आखिरी दौर में वोटों को थोक में खरीदा जाता है, कुछ प्रमुख लोगों को बड़ी राशि दी जाती है, इससे भी बात बनती नजर नहीं आती है, तो घर-घर जाकर हर परिवार में पैसे बांटने का काम भी होता है, हर घर में गुड़ बांटना तो साधारण बात है। जरा सोचिए, यह कैसा लोकतंत्र है, जहां लोकतंत्र की जगह नोटतंत्र जलवे दिखा रहा है। ऎसा चुनाव किस काम व मतलब का है, जिसकी शुरूआत ही भ्रष्टाचार से होती है। सभी बेईमान नहीं हैं। 50 प्रतिशत महिलाएं तो इस तंत्र से बिलकुल अलग हैं, लेकिन उनकी चलने नहीं दी जाती है। आज महिला उम्मीदवार का प्रचार भी पुरूष ही कर रहे हैं और वह जीत गई, तो भी काम पुरूष ही करते हैं या बेटा काम संभालेगा या पति, महिला की तो केवल आड़ ली जाती है। लोगों की कमजोरी का पूरा-पूरा फायदा उठाया जाता है, बच्चों की कसम दिलाते हैं। महिला उस कसम से डर जाती है कि पता नहीं, कुछ गलत कर दिया तो कोई अनहोनी न हो जाए।

इन्हीं तौर-तरीकों से जीतने वाले उम्मीदवार नरेगा में भ्रष्टाचार कर धन कमाएंगे। फर्जी बिल लगेंगे, फर्जी कंपनियां बनेंगी, फर्जी सामान सप्लाई दिखाएंगे, काम ढंग के नहीं होंगे, फर्जी हाजिरियां भरी जाएंगी, बोलने वालों को पांच साल तक धमकाया जाएगा। ये लोग सामाजिक अंकेक्षण करवाने का विरोध भी करेंगे। खुद भी खाएंगे और इस तंत्र में ऊपर भी खिलाएंगे, ताकि ऊपर का तंत्र भी इनको बचाने का काम करे। आज नरेगा के सच्चे स्वरूप को बचाना जरू री है और लोकतंत्र को भी।

नोट-बिहार के पाठक सरपंच के जगह मुखिया पढेंगे।

अरूणा रॉय
लेखिका प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं
सहयोग : शंकर सिंह

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