समाज में जो कुछ भी घटता है, चाहे वह अपराध हो या कुछ और उसका सीधा असर बच्चे के मस्तिष्क समेत उसकी सोच पर पड़ता है। यही वजह है कि सामाजिक घटनाओं से जुड़ीं मनोवैज्ञानिक विकृतियां अब स्कूली बच्चों को भी निगलने लगी हैं। यौन शोषण एवं यौन अपराध अपनी सीमाएं लांघ रहे हैं तो संवेदनहीन नई पीढ़ी से तंग आकर वृद्धाश्रम की शरण लेने वाले मां-बाप की संख्या भी बढ़ रही है। इसे देख स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि नई पीढ़ी की इस वर्तमान स्थिति और भविष्य के लिए कौन उत्तरदायी है?
मनोविज्ञानी मानते आए हैं कि यदि बच्चे का विकास समुचित ढंग से नहीं हुआ या उसके सामान्य विकास में अवरोध उत्पन्न हुए तो उसका व्यक्तित्व नकारात्मक ढंग से प्रभावित होता है। मां-बाप के बीच झगड़े, तलाक, अलगाव आदि का प्रभाव बच्चे के कोमल मन पर पड़ता है और वह असुरक्षा की भावना, आत्मविश्वास की कमी, हीनता एवं अस्थिरता का शिकार हो जाता है।
हाल ही में हुए कई मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है कि यदि मां-बच्चे का संबंध सुरक्षात्मक और प्रेमपूर्ण है तो बच्चे के व्यक्तित्व में सकारात्मक गुणों का विकास होता है। ऐसा न होने पर वह किशोरावस्था या युवावस्था में क्रोध, आक्रामकता एवं अपरिपक्वता से ग्रसित हो जाता है। एक अन्य मनोवैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार मनुष्य का सारा व्यवहार अर्जित है। परिवार के पालन-पोषण का तरीका और घर का वातावरण बच्चे के व्यक्तित्व एवं व्यवहार का कारण बनता है।
आज समाज का एक वर्ग आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है। उसे दो वक्त की रोटी जुटाने के लाले पड़े हैं। ऐसे में उसे बच्चे के भविष्य से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। उसे कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं है। सिवाय इसके कि घर में चूल्हा जलेगा कि नहीं। बच्चा क्या कर रहा है, कहां जाता है, कैसे रहता है? उसे यह पता करने का समय ही नहीं है। इतने अभावों और उपेक्षा में पला-बढ़ा बच्चा बड़े होने पर उच्च वर्ग के लोगों के लिए आक्रामक हो सकता है।
समाज और मान्यताओं के प्रति बगावत कर सकता है। उनको लूट मारकर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इससे उसको सुकून और शांति मिलती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऐसे बच्चों के अवचेतन मन में शक्ति प्रदर्शन एवं प्रभुत्व स्थापित करने की इच्छा होती है। यह तब है जब सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों से समाज में अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है।
दूसरी ओर हैं आज के व्यस्त आधुनिक मां-बाप, जो भौतिकता में इतने लिप्त हैं कि उनको पैसा कमाने की सनक चैन से रहने ही नहीं देती। नतीजतन बच्चों को मां-बाप का सानिध्य नसीब नहीं हो रहा है। ऐसे मां-बाप भूल जाते हैं कि सानिध्य एवं साहचर्य से ही प्रेम की उत्पत्ति होती है। बच्चों को सुबह-सुबह सोते से उठाकर, मुंह खुलाकर, खाना ठुंसाकर बोरे की तरह बस में डाल दिया जाता है।
विद्यालय से आते ही फिर खिला-पिलाकर सुला दिया जाता है, क्योंकि शाम को ट्यूशन पर जाना है। पुन: आना, खाना, पीना और सो जाना। जहां मां-बाप दोनों नौकरी में हैं वहां बच्चों का पालन-पोषण नौकरों द्वारा होता है या बहुत यांत्रिक ढंग से। यह विचारणीय है कि ऐसे वातावरण में यदि बच्चा पलेगा-बढ़ेगा तो बिलकुल रोबोट हो जाएगा। इसमें यदि चाबी गड़बड़ लग गई तो वह या तो विध्वंसक हो जाएगा या फिर चलेगा ही नहीं।
सीखने का एक और सिद्धांत है जिसे हम आदर्श का अनुकरण कहते हैं। इसके मुताबिक बच्चे के सामने जो आदर्श होते हैं वह उन्हीं का अनुकरण करके सीखता है। आज के दौर में जो जितना भ्रष्ट वह उतना ही महान, जिसकी जितनी संपत्ति वह उतना ही सफल, जिसका जितना बाहुबल वह उतना ही बलवान। इन आदर्शो की पूर्ति के लिए युवा पीढ़ी कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। एक और भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है जिसे हम वीपेन इफेक्ट कहते हैं। हथियारों के बीच पलने वाले बच्चे का व्यक्तित्व विध्वंसकारी होता है। उसे कभी-कभी विध्वंस और मारकाट में अत्यधिक आनंद आता है।
देखने वाली बात है कि भारतीय जीवनशैली पर पाश्चात्य जीवनशैली हावी होती जा रही है। भारतीय आदर्श और मूल्य मरते जा रहे हैं। दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी हमारे जीवन पर पूरी तरह हावी हो चुके हैं। दूरदर्शन, कंप्यूटर, मोबाइल ने लोगों को समाज से अलग-थलग कर दिया है। टीवी पर क्राइम के ही सीरियल दिखाए जाते हैं। कम्प्यूटर पर तो ना जाने क्या-क्या उपलब्ध है।
कभी गौर कीजिए कि बच्चे कितने चाव से उन्हें देखते हैं और उनमें दिखाए पात्रों से पूर्ण रूप से सहमति जताते हैं। यही नहीं वे उसे अपनी वास्तविक जिंदगी में उतारने के लिए भी उतावले रहते हैं। बहादुर बनने और आधिपत्य स्थापित करने की प्रवृत्ति उनके व्यक्तित्व का एक भाग बन जाती है।
इसके अतिरिक्त सुंदर बनने की ख्वाहिश और जवां दिखने की हसरत भी हद से ज्यादा बढ़ती जा रही है और उसके लिए भी युवा पीढ़ी क्या-क्या नहीं कर रही है। प्रतियोगिता, आगे निकलने की चाहत, रातों रात अमीर बन जाने की तमन्ना। ऐसे में कैसे होगा स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास? इसके निराकरण का कोई सरल रास्ता नहीं है।
बस एक ही बात समझ में आती है कि बहुत सारी अवांछनीय आदतों तथा कुंठित एवं अपरिपक्व व्यक्तित्व का विकास नासमझी और अनजाने में ही हो रहा है। जो कुछ हो रहा है उसका परिणाम क्या होगा? जिसे मां-बाप अपनी सामाजिक श्रेष्ठता और आन-बान-शान का प्रतीक समझते हैं वह उनके बच्चे में किस तरह का व्यक्ति विकसित करेगा। यह वे नहीं जानते या नहीं समझते।
यदि हम मीडिया के उपयोग से मां-बाप को इसके परिणामों का भी प्रशिक्षण दे सकें तो पूरा विश्वास है कि कोई भी मां-बाप जानबूझकर ऐसा नहीं करेगा। इसके बाद ही वर्तमान स्थिति में परिवर्तन संभव है।
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