विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा जारी जनांदोलनों के बाद एवं बेल्जियम में जन्मे और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर तथा समाज सेवी ज्याँ द्रेज के सलाह एवं प्रभाव से 25 अगस्त 2005 को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) जिसे 2 अक्टूबर 2009 से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का नाम दिया गया, संसद में पारित हुआ. इसे भारत सरकार के फ्लैगशीप योजना के बतौर प्रचारित किया जाता है. योजना का उद्देश्य ग्रामीण बेरोजगार परिवारों को वर्ष में कम से कम सौ दिनों का रोजगार उपलब्ध कराना है, ताकि उनकी क्रय क्षमता बढ़ सके. पहली बार इस योजना में जाति-धर्म, गरीब-अमीर अथवा स्त्री-पुरुष के आधार पर कोई विभेद नहीं किया गया है, सभी बेरोजगारों को समान रूप से रोजगार प्राप्त करने का अधिकार मिला है. पर क्या धरातल पर योजना अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रही ? मनरेगा के तहत पंचायतों में ग्रामीण संयोजकता, बाढ़ नियंत्रण, जल संरक्षण एवं संचय, सूखा निरोधन, सिंचाई नहरों की मरम्मती, भूमि विकास तथा अन्य कार्यों के लिए पैसे मांग पर उपलब्ध हैं, बस मिले पैसों का उपयोगिता प्रमाण पत्र एवं नए काम एवं उससे संभावित उत्पन्न कार्य-दिवसों का प्रस्ताव जमा करना होता है. इसकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वित्तीय वर्ष 2010-11 में इस योजना मद के लिए भारत सरकार ने 40,000 करोड़ रूपए का बजट रखा है.
छः सालों के बाद आज इसकी उपलब्धियों और नाकामियों का आकलन करते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है. यह योजना भ्रष्टाचार रूपी राक्षस का आहार बन कर रह गयी है. आज पंचायत प्रतिनिधियों के कमाई का मुख्य जरीया मनरेगा ही है.
इस योजना में व्याप्त अनियमितता का ज्वलंत प्रमाण औरंगाबाद जिले के दाउदनगर प्रखंड में तत्कालीन प्रखंड प्रमुख से योजना की प्रशासनिक स्वीकृति हेतु प्रखंड कार्यक्रम पदाधिकारी श्री आशीष कृष्ण द्वारा घूस के रूप में बीस हजार रूपए लेते निगरानी द्वारा पकड़ा जाना है. इतना ही नहीं मनरेगा में प्रखंड स्तर पर सहायक के रूप में कार्यरत रतन कुमार भी दो हजार रूपए घूस लेते पकडे गए. साफ तौर पर जाहिर है कि जब प्रखंड प्रमुख से रूपए की वसूली हो सकती है तो आम प्रतिनिधियों की क्या बिसात. पर, मामले की तह में जाने पर पता चलता है कि पंचायत प्रतिनिधियों से पदाधिकारी वसूली इसलिए कर पाते हैं कि वे धरातल पर एक लाख रूपए का काम चार से पांच हजार रूपए में निबटा देते हैं.
कहीं कहीं तो धरातल पर बिना एक रूपए का काम किए पैसे की निकासी कर ली गयी है. ऐसा ही एक मामला दाउदनगर प्रखंड अंतर्गत ही अरई पंचायत का है, जिसकी शिकायत ग्रामीणों द्वारा मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव तथा अन्य वरीय पदाधिकारियों तक से की गयी है. इसी गाँव के मुकेश पाण्डेय उर्फ नन्हे पाण्डेय ने बताया कि “ग्राम अरई में मेन रोड से महगु साव तक ईट सोलिग एवं नाली निर्माण (0505002002/RC/03/2009-10)” मद में मुखिया और सम्बंधित अधिकारी/कर्मचारी ने बयासी हजार नौ सौ सात रूपए बत्तीस पैसे (INR 82907.32) की निकासी बिना कोई काम कराए कर ली. भांडा फूटने पर मुखिया और पंचायत रोजगार सेवक ने थोथी दलील देनी शुरू कर दी कि इस पैसे से किसी दुसरे जगह काम करा दिया गया है, जबकि मनरेगा में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि प्रस्तावित स्थल से इतर अथवा अन्य किसी कार्य में उनका उपयोग किया जाए. मनरेगा पदाधिकारियों द्वारा दी गयी सूचना और इसके आधिकारिक वेबसाईट पर दर्ज ब्योरा भी निर्लजता से पैसे के गबन की कहानी कहते हैं. सरकारी जांच जारी है (!!!).
मनरेगा में जॉब कार्ड धारियों के खाते में भुगतान की व्यवस्था की गयी, पर भ्रष्टाचारी तो तू डाल-डाल मैं पात-पात के तर्ज पर, अपने चहेतों का (जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न होते हैं और मजदूरी नहीं करते) जॉब कार्ड खोलवाते हैं, जाली मस्टर रौल तैयार करते हैं और उनके खाते के माध्यम से भुगतान प्राप्त करते हैं. कार्यस्थल पर परियोजना के अनुमानित लागत के साथ कार्य संख्या इत्यादि का विवरण देते हुए नियमानुसार नागरिक सूचना पट (Public Information Board) गाड़नी होती है पर इसका बिल्कुल ही पालन नहीं किया जाता. काम शुरु करने से पहले Public Information Board (मनरेगा के नियमानुसार) गाड़ना जरुरी है, जिससे स्थानीय नागरिक हो रहे कार्य के बारे में जान सकें तथा अगर कोई खामी बरती जा रही हो तो वे समझ सकें । एक तरह से Board गाड़ देने से सोशल ऑडिट सवयंमेव होते रहता है । लोग बोर्ड देखते हैं फिर कार्य की गुणवत्ता. मनरेगा एक ऐसी योजना है जिसमें पब्लिक को सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) का अधिकार है, पर जानकारी एवं जागरूकता के अभाव के कारण लोग अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाते.
ऐसा भी नहीं, कि योजना में बरती जा रही अनियमितताओं की खबर सरकार को नहीं है. जनवरी 2007 से मार्च 2011 तक ग्रामीण विकास विभाग, भारत सरकार को केवल बिहार से 105 शिकायतें मिल चुकी हैं. इनमें से कुछ शिकायत तो अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा दर्ज हैं, जो आज भी भारत सरकार तथा बिहार सरकार में मंत्री हैं. पर, इन सभी शिकायतों पर केन्द्र सरकार द्वारा बार-बार रिमाइन्डर मिलने के बावजूद राज्य सरकार द्वारा दोषियों पर कार्रवाई की बात तो दूर कोई जाँच प्रतिवेदन तक नहीं भेजा गया, जो निराशाजनक है.
हर पंचायत में अमूमन दस से बीस लाख रुपए प्रत्येक वर्ष मनरेगा में खर्च हो रहे हैं, लेकिन वास्तव में धरातल पर बीस प्रतिशत राशि का भी व्यय नहीं हो पा रहा। चर्चा होती है कि बिहार में निवेश नहीं हुआ, फैक्ट्री नहीं लगी, मजदूरों का पलायन अन्य प्रदेशों में हो रहा है। और तो और महाराष्ट्र, गुजरात, आसाम सब जगह बिहारी मजदूर पीटे जा रहे हैं। निवेश नहीं हुआ तो नहीं हुआ, मनरेगा को तो ईमानदारी से कार्यान्वित करा दीजिए। जो काम बिहार सरकार के हाथ में है उसका कार्यान्वयन तो सही तरीके से हो जाए। मनरेगा को ईमानदारी से धरातल पर उतार दिया जाए तो बड़े स्तर पर मजदूरों को अपने घर में काम मिल जाएगा साथ ही आधारभूत संरचनाओं का भी विकास होगा और मजदूरों के पलायन को रोकना संभव हो सकेगा।
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