गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों को सामाजिक रुप से हतोत्साहित करने की जरुरत है।


आउटलुक का नवीनतम अंक मेरे सामने पड़ा है। प्रसिद्ध लेखिका, तथाकथित समाज सेविका एवं शब्दों की धनी अरुंधती राय का आलेख पढ़ा। किसी रोमांचकारी उपन्यास के लहजे में लिखे गये उनके यात्रा वॄतांत में "देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को गंभीरतम खतरा" को मजाक के तौर पर बार-बार दुहराया गया है। मेरी राय में माओवादियों से ज्यादा खतरनाक हैं ऐसे बुद्धिवादी। ये तथाकथित बुद्धिवादी, उत्पन्न कर रहे हैं देश के लिए गंभीरतम खतरा। किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं है, सच कहें तो, हिंसा अपने आप में सबसे बड़ी समस्या है। पर, अरूंधती राय ने इस आलेख में ऐसा जिक्र किया है जैसे ये माऒवादी ही हैं, जो सिस्टम के जुल्म से सर्वाधिक पीड़ित हैं- उनकी हत्याएं होती रही हैं, बलात्कार होता रहा है, विस्थापित होते रहे हैं, लूटे-खसोटे जाते रहे हैं। यहां तक कि उन्होने अपने विवेक से अपने इस आलेख में अनुमानित परिणामों तक का जिक्र कर दिया कि "फलां पर अगर पुलिस की नजर पड़ जाए तो उसे सीधे गोली मार दी जाएगी, और संभव है कि गोली मारे जाने से पहले उससे कई बार बलात्कार की जाए"।

हिंसक संगठनों ने अपनी हिंसा को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए विभिन्न वादों का सहारा लिया। मसलन माऒवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद इत्यादि। इन तथाकथित वादियों का मुख्य काम है-
जात-पात आधारित हिंसा करना,
समाज में भय उत्पन्न कर लेवी के रुप में भयादोहन करना।
ये वर्गशत्रु और सर्वहारा की दलिल देते हैं। सबसे बड़े वर्गशत्रु तो ये नक्सली खुद हैं। प्राय: सरकारी विद्यालयों में गरीब तबके के लोगों के बच्चे ही पढ़ते हैं, पर इन दिनों सरकारी विद्यालय भवनों को नक्सली बेहिचक निशाना बना रहे हैं। ये अपने अराजक कार्यों को जायज ठहराने के लिए थोथी लॉजिक देते हैं अथवा किसी वाद का जामा।
अगर समाज को मजबूत बनाना हो तो नागरिकों में शिक्षा की ज्योत जगानी चाहिए, उन्हें जागरूक बनाना चाहिए। पर, पता नहीं ये किसे शिक्षित कर रहे हैं और कैसी जागरुकता फैला रहे हैं।
प्राय: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में निर्माण कंपनियों से लेवी के रुप में भारी रकम की वसूली की जाती है, जिसका असर अंतत: निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर पड़ता है। क्या नक्सलियों का यह कदम सर्वहारा के हित में है?
यूं ही आदतन भय फैलाने हेतु अथवा हथियार लूटने के क्रम में नक्सलियों द्वारा अक्सर पुलिसकर्मियों की हत्याएं की जाती हैं। अधिकतर पुलिसकर्मी गरीब परिवारों के ही सदस्य होते हैं, जिन्हें किसी भी ऐंगल से तथाकथित वर्ग-शत्रु की परिभाषा में फिट नहीं बैठाया जा सकता।
बिहार में नक्सलियों द्वारा जो सैकड़ों जातीय नरसंहार किए गए, क्या उन्हें कहीं से भी सिद्धान्त का जामा पहनाया जा सकता है?

अरुंधती राय को अपने चन्द दिनों की पिकनिक में ही सारे तथ्यों का पता चल गया। क्या वे कभी इन नक्सलियों के बारुद से जले लोगों से मिले हैं?
उन माँऒं से मिले हैं, जिनके बेटे का अंतिम संस्कार सर और धड़ की पहचान नहीं होने के कारण अनुमान के आधार पर किया गया?
मिले हैं उन बहनों से, जिनके भाई दो जून की रोटी कमाने हेतु कड़े मेहनत के बाद सिपाही में भर्ती हुए थे, पर नक्सलियों द्वारा बिछाए लैण्ड माइन्स के विस्फोट में अपनी जान गँवा बैठे?
बूढ़े बाप को अपने बेटे के कंधे की उम्मीद थी पर, उसे अपने बेटे को ही कंधा देना पड़ा इन जुल्मियों के कारण।

प्राय: चुनावी गुणा-गणित के चलते राज्य सरकारें नक्सलियों के विरुद्ध नरम रुख रखते हैं, जिससे उनका मनोबल बढ़ते चला जा रहा है। जरूरत है इनके विरूद्ध निर्णायक कार्रवाई की। अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों को भी सामाजिक रुप से हतोत्साहित करने की जरुरत है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों को भी सामाजिक रुप से हतोत्साहित करने की जरुरत है। MOST IMPORTANT TO IGNORE.

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  2. She is an ISI agent... & kept of a Muslim minister from Kashmir...... She is the biggest fraud person in the intellectual world.

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  3. ईन जैसे देश के गदारो को देश से बाहर निकाल देना चाहिये

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